Bihar Local News Provider

सत्ता संग्राम: उम्मीदवारों में होता था हास-परिहास,चलते थे शब्दों के बाण

पहले के चुनावों में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बाद भी उम्मीदवारों व उनके समर्थकों में हंसी- ठिठोली चलती थी। हास-परिहास की भाषा में एक -दूसरे पर शब्दों के चुटीले वाण चलते थे। एक से बढ़ कर एक देहाती नारे भी गढ़े जाते थे। पूरा माहौल चुनावी भाइचारे का रहता था। कार्यकर्ता भी खूब चटखारे लेकर चुनावी चर्चा करते थे। यह तब की बात है जब न लाउडस्पीकर था न ही प्रचार प्रसार के लिए मोटर वाहन। तब मल्टीकलर पेंट का भी जमाना नहीं था। दीवाल लेखन कर पार्टी के कार्यकर्ता अपने उम्मीदवार व पार्टी का प्रचार करते थे। मिट्टी व कच्ची ईंट की दीवारों पर गेरुआ रंग से प्रचार लिखने वाले कार्यकर्ताओं को गांव-गांव में ड्यूटी बांटी जाती थी। 1952 में तो कांग्रेस उम्मीदवार सैयद महमूद के जमाने की याद करते हुए  गोपालपुर के 96 वर्षीय  रामायण पाण्डेय कहते हैं कि गाय-बछड़ा चुनाव चिह्न दीवाल पर उकेरे जाने के बाद उसे देखने के लिए बच्चों की भीड़ लग जाती थी। पूरे इलाके में कहीं -कहीं बांस पर सफेद कपड़े का पोस्टर टंगा दिखता था।
कैसे-कैसे नारे
रास्ता चलिह नाप के भोटवा दिहा फलां छाप के
देखा भाई फलां के खेल,खा गइल राशन पी गइल तेल
आधी रोटी तवा में फलां गइलें हवा में
दही चुरा राज के भोटवा सुराज के
एक ट्रैक्टर व साइकिल से लड़ा था चुनाव 
1984 में गोपालगंज सीट से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव जीतने वाले काली प्रसाद  पाण्डेय बताते हैं कि 1977 में उन्होंने एक साइकिल व एक ट्रैक्टर से चुनाव लड़े थे। तब पार्टी की ओर से पोलिंग एजेंट को आठ आना खाना खाने के लिए दिया जाता था। वे बताते हैं कि तब सियासी पार्टियों में लोक लाज था। अश्लील या द्विअर्थी नारे लगाने से प्रत्याशी डरते थे। उन्हें पब्लिक में छवि खराब हो जाने व वोट नहीं मिलने की आशंका सताती थी।
गुड़ की चाय के साथ जमती थी महफिल
पंडित द्वारिका नाथ तिवारी जब 1962 में चुनाव लड़ रहे थे तो रात को गांव-गांव के दलानों पर कार्यकर्ताओं का जुटान होता था। दलान के मालिक की ओर से गुड़ की चाय की व्यवस्था की जाती थी। तब के चुनाव को याद करते हुए आशा खैरा के अस्सी वर्षीय रामबाबू कुंवर कहते हैं कि तब बिना खर्च के उम्मीदवार चुनाव लड़ते थे। द्वारिका बाबू जिस गांव में जाते थे वहां के कोई संपन्न व्यक्ति उनके स्वागत व खान-पान की व्यवस्था करते थे। गांव के अशिक्षित लोग उम्मीदवार को ‘सरकार’ भी कहते थे।
नोट नहीं आना का था जमाना
सिरसा मानपुर के सत्तासी वर्षीय रामदेव ठाकुर बताते हैंकि शुरू के चार-पांच चुनावों में चुनाव कार्यालय नहीं होता था। किसी जमींदार के घर पर ही कार्यकर्ता जुटते थे। वहां भूंजा व सत्तू की व्यवस्था होती थी। तब आना व पैसा का जमाना था।